विहँस रहा क्यों सेमल वृक्ष


ठहर गया है समय
ठहर गई हैं दशों-दिशाएँ
ठहर गया है
सभ्यता के विकास का प्रतीक
पहिया
ठहर गया है आवागमन
निकल गई है हवा
‘वैश्विकरण’ के ग़ुब्बारे की
गिरने लगी हैं
पूँजीवाद को महिमामंडित करती
गगनचुंबी मीनारें
निरर्थक साबित हो रहा है
कई हज़ार सालों की यात्रा के दौरान
अर्जित किया गया
ज्ञान-विज्ञान
घूम रहा है मौत का प्रेत
गली-गली, गाँव-गाँव, शहर-शहर
दहशतज़दा है पूरी आदमजात
एक अदृश्य सूक्ष्मजीवी के क़हर से
काल के भाल पर
खिंच रही है एक
विभाजनकारी रेखा
ऐसे विकट समय में भी
तुम विहँस रहे हो
सेमल वृक्ष
क्या तुम बौरा गए हो?
हाँ, बौरा गया हूँ मैं
अब मुझे छूकर गुज़रने वाली पवन
चंचल व शोख़ हो गई है
मुझ पर पड़ने वाली धूप
धुली-धुली सी है
मैं अब देर तक निहार सकता हूँ
अपने आराध्य नीलगगन को
चाँद-तारों को
धवल चाँदनी में
मेरी शाख़ों पर ठहरने वाले
मेहमान पंछी,कीट-पतंग
करते हैं नृत्य
गाते हैं मधुर गान
रात भर
फिर मैं भी क्यों ना लहराऊं
अपनी बाँहें डोल कर
क्यों न मुस्कुराऊँ
दिल खोल कर।


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कवि परिचयः
जिला एवं सत्र न्यायालय, गाजियाबाद में 22 वर्षों से अधिवक्ता के रूप में कार्यरत्।
कविता संग्रह - रेशमी कमल, गिरती हैं दिवारें।
कहानी संग्रह - परदों के उस पार, वक्त से रूबरू।
निवासः फ्लैट न0 - 907, टॉवर न0 - 10, पंचशील प्रिमरोज, हापुड़ रोड , गाजियाबाद।
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