कोरोनावायरस के प्रकोप के बीच गंगा हमें शायद जैविक हमलों से बचा पाती, अगर उसे बहने दिया जाता


सौ साल भी नहीं हुए निंजा वायरस हमारी गंगा नदी में इफरात पाए जाते थे। वैज्ञानिक इन्हें बैक्टेरियोफाज कहते हैं। संक्रमण फैलने से रोकने में इनका महत्व समझना चाहिए।



 


एक वायरस होता है, निंजा वायरस कहते हैं उसे। निंजा यानी योद्धा। सौ साल भी नहीं हुए ये निंजा वायरस हमारी गंगा नदी में इफरात पाए जाते थे। वैज्ञानिक इन्हें बैक्टेरियोफाज कहते हैं और भारत की जनता इसे गंगत्व कहती है। गंगत्व यानी गंगा का वह तत्व जिससे गंगा जल कभी खराब नहीं होता। वैसे एक समय था जब दुनिया की चार बड़ी नदियों में ये बैक्टेरियोफाज पाया जाता था। समय की मार ने बाकि तीन नदियों और उनकी सभ्यताओं को मिटा दिया।


सिर्फ 20 साल पहले तक यह निंजा वायरस गंगा की छह मूल धाराओं में मौजूद था। फिर हमने एक टिहरी नाम का डैम बनाया और दो धाराओं भागीरथी और भीलंगना के संगम को इस डैम के लिए बनाई गई झील में डुबो दिया। नतीजा यह हुआ कि यहां मौजूद बैक्टेरियोफाज खत्म हो गया। वैसे भागीरथी में ऊपर की ओर अभी भी गंगत्व मौजूद है। साथ ही अलकनंदा, मंदाकिनी और पिण्डर में भी यह तत्व मिलता है। लेकिन कम हो गया है इतना कम की गंदे पानी को साफ करने की इसकी क्षमता नाममात्र की रह गई है। और इस बदलाव का कारण है, नदी का ठहर जाना।


कुछ ऐतिहासिक तथ्य जिन्हें हम अक्सर गर्व गान की तरह दोहराते रहते हैं – जैसे अकबर गंगाजल ही पीता था या अंग्रेज समुद्र यात्रा में गंगा जल ले जाते थे ताकि महीनों पीने का पानी खराब न हो वगैरहा – वगैरह। लेकिन इसके वैज्ञानिक पहलुओं पर चर्चा कम ही हुई है। कोरोना के साए में इसके वैज्ञानिक पक्ष को समझने की कोशिश करते हैं।


करीब सवा सौ साल पुरानी घटना है। बिहार और बंगाल में हैजा फैला हुआ था। हैजा के साथ फैला था डर, कि लाश को हाथ लगाएंगे तो हमें भी हैजा हो जाएगा। लोग लाशों को किसी तरह खींचकर या सुरक्षित दूरी से उठाकर – बांधकर लाकर गंगा में फेंक दे रहे थे। उस समय भारत में रिसर्च कर रहे ब्रिटिश वैज्ञानिक हाकिन्स के मन में यह आशंका जागी कि इस तरह तो हैजा गंगा के पानी के साथ–साथ सभी जगह फैल जाएगा। लेकिन यदि यह सच है तो अब तक महामारी का फैलाव काफी तेज होना चाहिए। उन्होंने शोध किया और पाया कि हैजे का बैक्टेरिया गंगा के पानी में जिंदा ही नहीं रह पा रहा। यानी कुछ है जो इस बैक्टेरिया को तेजी खा जा रहा है। इसके बाद यह शोध आगे बढ़ा और पाया गया कि पेचिश, मेनिन्जाइटिस, टीबी जैसी गंभीर बिमारियों के बैक्टेरिया भी गंगाजल में टिक नहीं पाते।


यह शोध चल ही रहा था कि दुनिया के सामने एंटीबायोटिक की खेप आ गई यानी हर बीमारी का इलाज एंटीबायोटिक खाओ। इस जादुई खोज ने गंगा जल पर शोध कार्य को पीछे धकेल दिया। फिर लोगों ने इतना एंटीबायोटिक खाया, इतना खाया कि बीमारी फैलाने वाले बैक्टेरिया पर इसका असर होना ही बंद हो गया। नतीजतन हमने एंटीबायोटिक का डोज और बढ़ा दिया इसी हिसाब से बैक्टेरिया भी अपनी ताकत बढ़ाता गया।


अब वैज्ञानिक और डाक्टर एक बार फिर गंगा जल की ओर ताकने लगे हैं। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, कोलकाता का गंगा जल किसी भी बैक्टेरिया को मारने में सक्षम नहीं रहा है। उलटे कानपुर के आसपास इसके कुछ नए और खतरनाक संकेत मिल रहे हैं।


लखनऊ के भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान यानी आईआईटीआर के वैज्ञानिकों ने कानपुर के बिठुर से शुक्लागंज के बीच गंगाजल पर किए अपने प्रयोगों में पाया कि यहां के पानी में डायरिया, खूनी पेचिश और टायफायड पैदा करने वाले बैक्टेरिया तेजी से पैदा हो रहे हैं। लेकिन ये संकेत वहीं मिल रहे हैं जहां नदी सर्वाधिक प्रदूषित है और ठहरी हुई है।


बहाव वाली जगहों पर उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं। इमटेक सीएसआईआर की प्रयोगशालाओं में से एक है। शोध में पाया गया है कि गंगा जल में करीब 20-25 वायरस ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल ट्यूबरोक्लोसिस (टीबी), टॉयफॉयड, न्यूमोनिया, हैजा-डायरिया, पेचिश, मेनिन्जाइटिस जैसे अन्य कई रोगों के इलाज के लिए किया जा सकता है।


एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट बैक्टीरिया दुनिया के वैज्ञानिकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती हैं।


आईआईटी रूड़की से जुड़े रहे वैज्ञानिक देवेन्द्र स्वरूप भार्गव का शोध है कि गंगा का गंगत्व उसकी तलहटी में ही मौजूद है और आज भी है। उन्होने कहा कि गंगा में आक्सीजन सोखने की क्षमता है। कुछ शोधों में यह भी पाया गया कि बैक्टेरियोफाज कुछ वायरस पर भी असरकारक हैं। डॉ. भार्गव वायरस पर ही शोध करना चाहते थे लेकिन सरकारी स्तर पर उन्हें सहयोग ही नहीं किया गया। कोरोना संकट में डॉक्टर भार्गव का दावा है कि क्लोरीन इस वायरस से बचाव में सर्वाधिक सक्षम है। इसलिए सरकारी स्तर पर इसका प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए।


सूक्ष्य जैविकीय अध्ययन केंद्र (Institute of Microbial Studies ) ने रूद्रप्रयाग और देवप्रयाग के गंगा जल पर किए अपने अध्ययन में पाया कि यहां के जल में 17 तरह के वायरस पाए गए जो खराब बैक्टीरिया को मारने में सक्षम हैं। जबकि इन जगहों का गंगा जल भी पूरी तरह शुद्ध नहीं माना जाता। दि नेशनल एनवायरनमेंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी (नीरी) ने गंगा जल की क्षमताओं पर बड़ा शोध कार्य किया जिसमें पाया गया था कि गंगा जल में 20 रोगों को मारने की क्षमता है लेकिन एंटीबायोटिक कंपनियों के दबाव में इस रिपोर्ट को छपने नहीं दिया गया और इस शोध से जुड़े वैज्ञानिक को भी प्रीमेच्योर रिटायरमेंट दे दिया गया था।


कोरोना संकट पर जिस तरह अमेरिका और चीन बयानबाजी कर रहे हैं इससे एक संकेत तो साफ है कि भविष्य में मानव जाति पर ऐसे कई जैविक हमले हो सकते हैं जिनसे बचाव तो दूर हम जानते भी नहीं कि वे क्या हैं, कैसे और कितने मारक होंगे। थाली बजाना लोक विश्वास का विषय है लेकिन वायरस शोध पर निवेश आज की जरूरत है।


प्रकृति ने धरती की सबसे शानदार नदी से हमें नवाजा और हम उसे भी नहीं संभाल पाए। इस क्षेत्र में काम करने वाले सभी वैज्ञानिक मानते हैं कि गंगा हमें हर लड़ाई के लिए सक्षम बनाती है बस उसे बहने दीजिए। वरना वह दिन दूर नहीं जब बच्चे यह कहानी सुनेंगे कि – एक था निंजा वायरस।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेखक के विचारों से सम्पादकीय सहमति आवश्यक नहीं ।)