कोरोना वाइरस का नवीनतम संस्करण बीते दिसंबर के दूसरे हफ्ते में पिटारे से बाहर निकला। इसे कोविड-19 कहा गया। तभी से इसकी वजह से होने वाली हलचल का पता इसाबेल हिल्टन की चाइना डायलॉग से चल रहा है।
हूबे नामक चीनी सूबे के वुहान शहर से चले इस हौवा के भय से दुनिया थर-थर कांप रही है। गले लगाने व हाथ मिलाने वाले लोगों के बीच अब एक फासले ने जगह बना ली है। मार्च का अंतिम सप्ताह आने तक भारत भी इसकी चपेट में आकर बेवश हो गया। आज महानगरों से गांव तक हाहाकार मचा है। और यह शीघ्र ही थमने वाला भी नहीं है। चार महीने में इसका शिकार हुए लोगों का आंकड़ा दस लाख तक पहुंच जाएगा। इनमें दो लाख मरीजों के सुरक्षित बचने व पचास हजार लोगों के मौत की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। जहां तक इस रोग का सवाल है, भारत की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है। पर इस हौवा के भय से अराजकता, मंदी और मंहगाई का अभूतपूर्व क्रम शुरु हो गया है। अपने देश में गृह युद्ध भी नहीं छिड़ा और न्यू वर्ल्ड ऑर्डर में चीन की हैसियत तक बदल गई। इस राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझे बगैर कोरोना का रोना पूरा नहीं होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन इस महामारी को अंतरराष्ट्रीय संकट घोषित करती है। साथ ही वैश्वीकरण और राष्ट्रवाद के इस दौर में आवागमन ही ठप्प हो जाता है। हैरत की बात है कि रविवार, 22 मार्च का 'जनता-कर्फ्यू' सचमुच में तीन हफ्तों का तालाबंदी साबित होता है। नौकरशाही के बूते केंद्र सरकार आनन-फानन में इसे लागू करने की घोषणा करती है। नतीजतन अगले ही दिन नोटबंदी से भी भयावह अफरा-तफरी चहुँओर फैल गई। इस अराजकता को देखकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विनम्रता से उन लोगों से माफी मांगते हैं, जिनका कोरोना से कोई लेना देना नहीं, बल्कि अपने गांव लौटने की मजबूरी रही। अब एक ऐसा हौवा बाजार में है, जो मेहनतकश लोगों को भी अर्थशास्त्र का अनर्थ समझाने में सक्षम है।
पहले विश्व युद्ध के अंतिम दौर में फ्लू की वजह से करीब दो करोड़ लोगों के मारे जाने का अनुमान है। इसे स्पेनिश फ्लू और एवियन फ्लू भी कहते हैं। बीते बीस सालों में ही सार्स, इबोला और स्वाईन फ्लू जैसी कई बिमारियां सामने आई हैं। इनके नियंत्रण का श्रेय विश्व स्वास्थ्य संगठन और सीडीसी-अटलांटा को जाता है। परंतु म्युटेशन से होने वाली नई प्रजाति से होने वाले संक्रमण का खतरा टला नहीं है। साथ ही जैविक हथियार के तौर पर इनका इस्तेमाल असंभव भी नहीं है। इंफ्लुऐंजा की नवीन किस्म सार्स प्रजाति के कोरोना वाइरस के म्युटेशन का परिणाम है। दुर्भाग्यवश इसकी भी जन्मभूमि चीन में ही है।गौरतलब है कि चीन के सरकारी इतिहास में साफ लिखा है कि दूसरे विश्व युद्ध में हुए परमाणु हमले के बाद 1950 के कोरिया वार में अमरीका ने जैविक हथियार का इस्तेमाल किया था। अब इन दोनों ही महाशक्तियों के बीच चल रहे ट्रेड वार के इस दौर में वुहान की वाइरोलोजी लैब चर्चा में है। वहां सचमुच क्या हुआ यह दुनिया भर के लिए जिज्ञासा का विषय है।
अपने टाइम लाइन में अमरीका, ईरान, यूरोप के इटली और स्पेन जैसे तमाम देशों से इसके मरीजों की खबरें आ रही हैं। अचानक शुरु हुआ यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसके वैक्सीन के लिए नॉर्वे के प्रधानमंत्री ने 21 करोड़ डॉलर और ब्रिटीश प्रधानमंत्री ने 21 करोड़ पाउंड खर्च किया है। तमाम देशों में राहत पैकेज की घोषणाएं की जाने लगी है। यूरोप ही नहीं बल्कि अमरीका और भारत के शेयर बाजारों में भी गिरावट दिख रही है।
एक ओर इसने दुनिया के तमाम राष्ट्र-राज्यों में मंदी की नींव डाल दी तो दूसरी ओर शेयर बाजार में चीन का परचम शान से लहरा रहा है। बीजिंग इसी बीच कोरोना पर विजय की घोषणा करता है।
साथ ही इसका जश्न भी मनाया जाता है। इस हौवा का 100 के आंकड़े में हवा निकालने के दावे के साथ दुनिया का सबसे बड़ा देश मंदी की मार से भी कोसों दूर है।इस खेल में चीन को लाभ ही लाभ है।
अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर तालाबंदी का दबाव पब्लिक डोमेन में है। इस व्यापक तालाबंदी को अमरीका में लागू नहीं करने के कारण ट्रंप मीडिया में निशाने पर हैं।
वहां 2020 में इंफ्लुऐंजा से होने वाली मौत का आंकड़ा ढ़ाई लाख के करीब पहुंच सकता है। अमरीकी वाइरोलोजी संस्थान के अनुसार औसतन 66,000 लोगों के मौत की वजह इंफ्लुऐंजा-न्युमोनिया है। इस मामले में चीन का पक्ष लेने के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन भी संदेह के घेरे में है। एक बार फिर दुनिया दो ध्रुवों के बीच सहम-सिमट रही है। और इस बार अमरीका का कद शी जिनपिंग के चीन के सामने बौना दिख रहा है।
पंचशील के पैरोकार नेहरू ने 1959 में चीन के लिए तिब्बत की बलि दी। उसके बाद 'हिन्दी चीनी भाई भाई' का नारा खूब बुलंद हुआ था। फिर 1962 में जंग भी हुई। दो दशक पहले काराकोरम में चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला रोडवेज प्रोजेक्ट शुरु हुआ था। सिल्क रुट पर यूरोप, अफ्रीका और एशिया को घेरने वाला बेल्ट एंड रोड परियोजना इसका विस्तार पक्ष ही तो है। इक्कीसवीं सदी में नरेंद्र मोदी व शी जिनपिंग महाबलीपुरम और वुहान में भाईचारे का शंखनाद करते प्रतीत होते हैं। फिर यह भी सच है कि कश्मीर की बात पर चीन ने पाकिस्तान व तुर्की के साथ मिल कर भारत के खिलाफ ग्रैंड एलायंस बनाया है। इससे एक सदी पुरानी उस बात की पुष्टि होती है, जिसमें चीनी (मंगोल) और इस्लाम साथ मिल कर संपूर्ण विश्व पर छाने की रणनीति बनाते हैं। ऐसी दशा में सवाल उठता है कि क्या भारत पुरानी भूल दोहराने को ही अभिशप्त है? अथवा इंग्लैंड व अमरीका जैसे देशों के साथ ग्रैंड एलायंस बना कर नई चुनौतियों का सामना करेगा? यदि ऐसा गठबंधन कायम होता है तो उसका आधार क्या होगा? संकट की इस घड़ी में सवालों से मुंह मोड़ना तो संभव है, पर इनके दुष्परिणाम से बचना संभव नहीं। आज कोरोना वाइरस की नई प्रजाति से मची तबाही को भी इसी आलोक में देखने-समझने की जरूरत है।
भारत में चीनी फ्लू के मरीजों की स्थिति संतोषजनक है। शुक्र है कि सिल्क रुट के चीनी माॅडल के ईरान और इटली जैसे पैरोकारों वाली दशा यहां नहीं हो सकी। पूणे और दिल्ली में मरीजों का इलाज कर रहे डाक्टरों से हुई प्रधानमंत्री की बातचीत में इस भय को दूर करने वाले अवयव मिलते हैं। दोनों जगह संक्रमण के माइल्ड होने की पुष्टि हुई। इससे आहत मन को राहत मिलती है। साथ ही मेनस्ट्रीम में इसके प्रति आम भारतीय की प्रतिरोधक क्षमता पर चर्चा शुरु हई है। मेरे मित्र डॉ ओंकार मित्तल मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज से स्नातक हैं, पर इस संकट से निपटने के लिए तमाम पारंपारिक चिकित्सा पद्धतियों के पैरोकारों के साथ मिल कर आगे बढ़ने के लिए ट्रेडिशनल हेल्थ केयर प्रेक्टिसनर्स कॉपरेटिव की बात करते हैं। मैं इसे अपने गांव के हित की बात मानता हूं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और लेखक के विचारों से सम्पादकीय सहमति आवश्यक नहीं।)