गीली क़मीज़

बहुत गर्म है
मेरे शहर की हवा
बहती भी है सरर...सरर...
बहुत तेज़
सुखा डाली हैं इसने
शहर के जिस्म को
गीला रखने वाली
संवेदना की सभी झीलें
सुखा डाले हैं
सभी वट-वृक्ष
अब मयस्सर नहीं
मेरे शहर में
जेठ की दोपहर में
किसी राहगीर को
दो घूँट पानी
मैं भी हूँ प्यासा बहुत
भटकता फिरता हूँ
यहाँ-वहाँ
बचा लेना चाहता हूँ
शहर के पानी को
या फिर
शब्दों के मानी को
शहर को पहना कर
पसीने से तर-बतर
अपनी गीली क़मीज़ ।


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कवि परिचयः
जिला एवं सत्र न्यायालय, गाजियाबाद में 22 वर्षों से अधिवक्ता के रूप में कार्यरत्।
कविता संग्रह - रेशमी कमल, गिरती हैं दिवारें।
कहानी संग्रह - परदों के उस पार, वक्त से रूबरू।
निवासः फ्लैट न0 - 907, टॉवर न0 - 10, पंचशील प्रिमरोज, हापुड़ रोड , गाजियाबाद।
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